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“” एक – दूसरे की फिकर है , प्रेम .
आशाओं की डगर है , प्रेम .
विश्वास की एक डोर है , प्रेम .
माँ की ममता है , प्रेम .
पिता का एहसास है , प्रेम.
किसी का समर्थन है , प्रेम .
किसी की चिंता है , प्रेम .
किसी की अच्छी कामना है , प्रेम .
किसी के दुःख को अपनाने में है , प्रेम .
बुराई पर जीत है , प्रेम .
एक अनंत परिभाषा है , प्रेम .
बस ढूंढने की अभिलाषा है , प्रेम .”
बयां ये दास्ताँ कैसे करूँ ?
बेजुबानी ये तेरी कैसे सहूँ ?
इंकार – ए- मोहब्बत चाहत नहीं , कम्बखत कहूं तो कैसे कहूं ?
लफ्ज़ फीके पढ़ जाते हैं अक्सर मोहब्बत में .
लेकिन इज़हार -ए- मोहब्बत कैसे करूँ ?
वो तेरा चेहरा आयना बनकर आ जाता है जब कभी ,
उसको देखकर , तुझको पाने लगते है हम कभी ,
प्यारी सी मुस्कान हम दे देते हैं कभी .
और हम बोलकर भी बोल न पातें हैं कभी .
फिरसे खो जाते हैं ये लफ्ज़ कहीं .
लफ्ज़-ए-बयां मोहब्बत नहीं ,
धड़कनो का मिलना चाहत नहीं ,
तुझको हासिल करना मेरा मकसद नहीं ,
मुझे तो रहना है , तेरे संग ही सही ,
हिय के मिलन से , हिय तक सही ,
दर्द रहे तेरा जो , वो मेरा भी सही ,
करना है हर वो काम जो तेरे साथ सही ,
में कहता हूँ लफ्ज़-ए-बयां मोहब्बत नहीं
मोहब्बत नहीं ….
एक अरसा हो गया है , देखे बिना .
एक तेरी चाहत को पाये बिना .
मुस्कान को तेरी अपनाएं बिना , मेरे दिल से पूछ क्या हाल है देखे बिना .
इत्तफ़ाक़ भी नहीं तक़दीर क्या तेरे बिना .
ये बेदर्दी भी कैसी तेरे बिना .
अब एक झलक भी नहीं तेरी , तेरे बिना .
मेरी एक मुस्कान भी ज्यादा है , तेरे बिना .
एक अरसा हो गया है , देखे बिना .
ख़ुशी का पता नहीं , गम भी पूरे नहीं , तेरे बिना .
बेबफाई क्या आँख उठी भी नहीं , तेरे बिना .
दुनिया से बेगाना हूँ अब , तेरे बिना
और अब एक नगमा क्या मोहब्बत का , तेरे बिना .
एक अरसा हो गया है , तेरे बिना .
एक अरसा हो गया है , देखे बिना .
वो इश्क़ ही क्या , महबूब के बिना .
और अब खुद में बिखर सा गया हूँ , तेरे बिना .
कायनात भी पलट सकता था , पर अब क्या , तेरे बिना .
जो सजाये थे सपने , पर अब सपने ही क्या , तेरे बिना .
मुकद्दर को पाकर अब सिकंदर क्या , तेरे बिना.
एक अरसा हो गया है , देखे बिना
एक अरसा हो गया है , तेरे बिना
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