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राह: एक चित्रण(2)

""मनन से ""
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आपने राह: एक चित्रण(1) को काफी सराहा ,उसके लिए आपका आभार……अब मैं राह:एक चित्रण (2) को पेश करने जा रहा हूँ गौर करिए शब्दों पर…और पुनः आपका आभारी होना चाहता हूँ….कुछिक पंक्तियों से इसको मैं शुरू करना चाहता हूँ….
“हमने सोचा राह मैं ,मंजिले दूर हैं…
क्या रास्तों मैं मिलने वाले इतने मजबूर हैं,
की खुद की नाकामयाबी पर, हमको ऊँगली दिखलाते हैं….
और पीछे मुड़कर देख हमको ही,अनदेखा कर जाते हैं…
हम उन्हें क्या समझते,ये वे अच्छी तरह हैं जानते…
पर ये न जाने वे क्यों हमसे ,यूँ वक्त -वक्त मुकर जाते हैं….
चलिए आगे बढ़ते हैं-अक्सर ऐसा देखा जाता है,की हम बहुत कुछ कर दिखाने के जजबे,जूनून को लेकर मैदान मैं उतारते हैं..तो कहीं न कहीं उस जूनून मैं अति का जो भाव है…वो स्पष्ट रूप से नज़र आने लगता है,और हम कुछ समझे बिना,अगला कदम बढ़ाने की चाहत मैं..हम ऐसे मुहँ के बल गोता खाते हैं….कि हमे भी पता नहीं चलता कि आखिर ये क्या हो गया है…और उस समय ये प्रतीत होता है,कि हम कुछ भी हद पार करने को तत्पर रहते हैं चाहे वो ज़िन्दगी कि अंतिम चरण का क्यों न हो….जो शायद सामाजिक रूप से और मूल्यता पारिवारिक रूप से बहुत बड़ी दुखद ,भयानक और मुख्यता अविस्मरणीय घटना बनकर रह जाती है…दूसरी ओर वह ईस्वर हमें इंगित कर रहा होता है ,कि जहाँ तू अभी खड़ा हुआ है,वहाँ तू अपने विवेक से भी bahar काम करने जा रहा है…..तो पहले जो हमें ठोकर मिली थी वो ईस्वर का इशारा होता है…जहाँ हमे अपने विवेक से अपने कदमो को सभान्लकर रखना हमें सीखना होगा…तो वहाँ हमें व्यवस्थित रुक जाना ही विकल्प है…अब बारी हमारी है कि जहाँ हमें समझना है कि जहाँ हम असफल हुए वहाँ क्या कमी थी या हमने क्या galti कि इस ब्बत पर चिंता नहीं हमें चिंतन करना आना चाहिए ….और हमेशा असफलता यही बताती है कि हमारी सफलता पाने कि इच्छाओं मैं आखिर क्या कमी रह गयी….उन पर विचार कर उनको खंडन करना आना आवश्यक है….तो मेहनत को अपनी जाया न करते हुए,निराश न होकर,उस ईस्वर का सहारा मात्र लेकर आप आगे बढे निश्चित ही आपको सफलता मिलेगी….

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